गुरुवार, 8 सितंबर 2016

मिथ्याभिमान और झूठे दंभ


बहुत इंतज़ार के बाद मौसम ने आज अपने वज्ञानिकों की आबरू को तार-तार होने बचा लिया और मौसम विभाग द्वारा पूर्व घोषित तिथि को ही सुबह सुबह बादलों ने तेज़ गडगडाहट और बारिश के साथ शहर में दस्तक दे दी....मै भी मजे से रजाई में सर डाल कर ठंड का मज़ा ले रहा था तभी बादलों की गडगडाहट से भी तेज़ आवाज़ कानों में सुनाई पड़ी "उठो जी...आज ओफिस नहीं जाना क्या....मौसम ख़राब है जल्दी कीजिये......??"
मैंने बेड से कदम नीचे उतारते हुए योजना तैयार की कि क्यों न आज किसी बहाने ऑफिस से छुट्टी लेकर दिन भर रजाई में घुस कर टेलीविज़न का मज़ा लिया जाये..... परिवार की इच्छा भी पूरी हो जाएगी । 
इसी निर्णय के साथ मै पुनः रजाई में घुस गया ओर बेटी को फरमान सुनाया की तत्काल टेलीविज़न का रिमोट उपलब्ध कराया जाये, पापा की आज ऑफिस से छुट्टी ।
पर.... ये क्या ! सारे न्यू चैनल पर सिर्फ एक ही ब्रेकिंग न्यूज़ जो राजधानी क्षेत्र के एक विख्यात विश्वविद्यालय में भद्र छात्रों द्वारा किये जा रहे राष्ट्र विरोधी गतिविधियों पर एक राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टी के राजकुमार द्वारा की गयी एक टिप्पड़ी से सम्बंधित थी ।
काफी देर तक न्यूज़ चैनलों की टी.आर.पी.से इतर कुछ चटपटी फिल्म या कार्यक्रम की खोज में रिमोट के बटन दबाता रहा किन्तु चाय के छह प्याले और सुबह के तीन घंटे ख़त्म करने के बाद भी कुछ अपने टेस्ट का न मिलने पर टेलीविज़न बंद कर मै बरामदे में डायनिंग टेबल पर आकर बैठ गया और न्यूज़ पेपर उठा लिया । 
किन्तु दिमाग में टेलीविज़न की ब्रकिंग न्यूज़ और मेरे बचपन के एक वाकये की समानता ने बार-बार मुझे लिखने को मजबूर किया, बस मै अपनी लेखन मेज़ पर आ गया । 
अस्सी के शुरूआती वर्षों में पिताजी ने एक दिन अपने मन की बात बताते हुए क्रिकेट विश्व कप से पहले टेलीविज़न खरीदने की इच्छा जाहिर की थी । लेकिन पहले से ही घाटे में चल रहे घरेलु बजट में और कोई अतिरिक्त वित्तीय बोझ न डालने के सुझाव के साथ विपक्ष की प्रभावशाली भूमिका में माता जी ने अपना मुखर विरोध दर्ज कराया, किन्तु हम पांच भाई बहनों द्वारा पिता जी के प्रस्ताव को तत्काल ध्वनी मत से उसी रूप में पारित कर दिया गया । निष्कर्षतः अल्पमत के कारण माता जी का विरोध ख़ारिज हो गया
दिन भर काफी इंतज़ार के बाद शाम को पिताजी ने टेलीविज़न लाकर घर में रख दिया और हिदायत दी की इंजिनियर के आने तक कोई टेलीविज़न को हाथ नहीं लगाएगा । 
शाम को पूरे नगर में अपने परिवार की आर्थिक समपन्नता का परचम फहराने के आशय से पिताजी इंजीनियर महोदय के साथ हाथ में दो लोहे की बड़ी बड़ी पाइप और दैत्याकार चौदह डंडे वाले एंटीने को लेकर छत पर चले गए 
............. बस यही सही मौका था की टेलीविज़न को एक नज़र देख लिया जाये । 
सबसे पहले मैंने साहस किया लेकिन डिब्बे को खोलते ही मन ख़राब हो गया की ये क्या...पापा ये वाला टेलीविज़न लाये हैं..? “ये कंपनी तो ख़राब है....वो वाला ज्यादा ठीक था
और भाई-बहनों ने भी अल्पज्ञान से भरे अपने-अपने मत दिए,
अरे ये तो महीने भर में ही झिलमिलाने लगेगा...जिज्जी
हाँ पिंकू बता रहा था इसमें तो दूरदर्शन का गोला भी तिरछा आता है
इसी बीच बड़े दादा नहीं यार... ठीक तो है लेकिन इसका खटका (शटर) बहुत जल्दी खराब हो जाएगा 
तभी बड़ी दीदी ने सारे ज्ञानी स्वरों पर मुखर रोक लगाते हुए चलो अभी इत्ते बड़े नहीं हो सब लोग .....काबिल की पुड़िया न बनो, जो आ गया है वही ठीक है, ये पुरानी और अच्छी कंपनी है, टेलीविज़न अच्छा ही होगा
टेलीविज़न ने हमारे पूर्वाग्रह के विपरीत बिना किसी शिकायत के अच्छी उत्पादकता देनी प्रारंभ कर दी । 
कुछ दिनों बाद एक दिन इतवार को पिताजी ने सुबह सुबह उद्घोष किया की आज मै सेमी फाइनल मैच देखूंगा कोई मुझे डिस्टर्ब नहीं करेगा। मैंने भी जनसामान्य के लिए जारी सूचना को व्यक्तिगत लिया और गुल्ली को पॉकेट में डाल कर डंडा नचाता बाहर मैदान की ओर निकल पड़ा । 
मै भाई बहनों में सबसे छोटा हूँ किन्तु घर में फ्यूज़ बल्ब बदलना, बिजली वाले इस्त्री में एलिमेंट बदलना या माँ की सिलाई मशीन एवं पंखों में ग्रीसिंग करने का काम बखूबी करता था इसी विशिष्ट योग्यता के कारण पिताजी मेरा परिचय आगंतुकों से "...ये मेरा इंजिनियर बेटा है...." कह कर कराते थे ।
मां-पिताजी के इसी मिथ्याभिमान ने मुझे परिवार में सारे भाई बहनों से अलग और विशेष दर्जा प्राप्त नागरिक बना दिया था ।
बाहर खेलते खेलते मेरे कानों में पिताजी की आवाज़ सुनाई दी 
"
छोटू यहाँ आओ देखो टेलीविज़न को क्या हुआ, सिर्फ आवाज़ आ रही है... चित्र साफ़ नहीं दिख रहा है"
गुल्ली डंडा वही छोड़ कर मैं चिल्लाया ".....हाँ आया पिता जी  
इसे क्या हुआ... चित्र कहा गए??"  मैंने कौतुहल से पुछा
यही तो....... बेटा तुम ज़रा टेलीविज़न खोलकर देखो क्या हुआ 
इसी के साथ पिता जी ने मुझे पेचकश हाथ में थमाकर फर्श से करीब छः फिट ऊपर रखे टेलीविज़न के पास टांड पर चढा दिया ।
ऊपर टांड पर बैठ कर टेलीविज़न खोलते खोलते मैं नीचे दो धड़ों में बट चुके भाई बहनों से आ रही परस्पर विपरीत प्रतिक्रिया भी सुनता रहा ।
बड़ी बहन "जल्दी करना ....कपिल की बैटिंग देखने को मिल जाए" 
अरे ये ससुरा कुछ नहीं जानता चित्रहार भी ले जायेगा, कम से कम आवाज़ तो आ रही थी बड़े भाई ने पूरे कांफिडेंस के साथ भविष्यवाणी की ।
मझला भाई" अरे छोटुआ बौड़म है दद्दा ....पापा की मति ही मारी गयी है...." 
इसी बीच मेरी छोटी बहन और पिताजी की दुलारी बोली "भैया बना लेना शाम को विक्रम बेताल भी देखना है" 
तभी माँ की निर्णायक ध्वनि "न बने तो बता देना और जल्दी उतर आना.....ज्यादा ख़राब न हो जाये" 
मैंने मन ही मन सोचा कि अगर पिता जी आज भाई बहनों की बात मान लेते तो ही ठीक होता , मेरे पास न तो मीटर (मल्टी मीटर ) न कहिया (सोल्डरिंग आयरन) ओर न ही इसका कोई तकनीकी ज्ञान, मै करूंगा क्या ? 
टेलीविज़न के पीछे के नट खोलते-खोलते जिज्ञासा और उत्साह के साथ मन में दुविधा चल रही थी की मै क्या करू ? तभी पिताजी के मिथ्याभिमान और मेरे अपने आत्मसम्मान की रक्षा बोध ने मेरा साहस बढ़ाया ।
टेलीविज़न के पीछे का ढक्कन खोलते ही अन्दर लगे चुइंगम ओर कैप्सूल सरीखे पार्ट्स उनमे उलझे लाल-पीले तार मानो मेरे होश ही उड़ गए, लेकिन मेरे चेहरे की हवाइयां देख कर पिताजी के उत्साह में आई कमी को भांप कर तत्काल मैंने प्रतिक्रिया दी...
"अरे इसमें तो मकड़ियों ने जाला लगा रखा है....यही खराबी है अभी ठीक करता हूँ..."
"
शबाश बेटा" कहते हुए पिता जी ने हाथ में जूते साफ़ करने वाला ब्रश धमाया ओर बोले ....मै जानता था तुम ठीक कर लोगे...."
जालों की सफाई के बाद मेरा ग्रीन सिग्नल पाकर पिता जी ने टेलीविज़न चालू किया लेकिन... तस्वीर नहीं आई।
फिर से नयी आशा के साथ पिता जी मेरी ओर देखा मैंने भी पैतरा बदला ओह हो....ये तो फ्यूज़ भी उड़ गया है.."
बांध दे बेटा ज़रा ठीक से १०-११ ओवर ही निकले होंगे ...लेकिन कोई बात नहीं तू बढ़िया से ठीक कर दे ।
शाबाश..... मेरे इंजीनीयर बेटा " पिता जी ने फिर से मेरा साहस बढ़ाया ।
फिर से चालू कीजिये पिता जीअपने धैर्य को सम्भालते हुए पिताजी बोले नहीं बेटा सही नहीं हुआ,.. वैसा ही दिख रहा है
अच्छा थोडा और देखने दीजिये
“...
उफ़ ये कैसा तार है ? खुल्ला पड़ा है...ये कंपनी तो बस...., लिखती भी नहीं कौन सा तार कहां का है फिर भी मै बनाता हूँ
दोपहर बीतते बीतते मेरे झूठे आश्वासन ने पिता जी को मेरी काबिलियत की सच्चाई से रूबरू करा दिया था ।
“..
आजा बेटा नीचे आ जा तुझसे नहीं हो पायेगा" पिता जी ने उम्मीद छोड़ कर नीचे से आवाज़ दी ।
मैंने भी अपनी अक्षमता छुपाते हुए टेलीविज़न कम्पनी को दोषारोपित कर अपनी जान छुडाई ।
दोपहर बाद पिता जी ने अपनी गलती का अहसास कर इंजिनियर को संदेसा भिजवा दिया ।
शाम को विक्रम बेताल की कास्टिंग गीत के साथ साथ टेलीविज़न पर जब चित्र भी दिखाई दिया तो पिताजी चिल्लाये "हां भाई.... आ गया......आ गया"
इंजिनियर ने छत से आकर बताया "टेलीविज़न बिलकुल ठीक है बस पंछियों ने एंटीने का तार तोड़ दिया था"
अपने बचपन के उस संस्मरण और वर्षों बाद आज सुबह से ब्रेकिंग न्यूज़ पर दिखाए जा रहे राजनितिक घटकों-पात्रों में मैंने पूरी समानता, जैसे.....मेरी जगह दंभ से लबरेज राजनैतिक पार्टी का राजकुमार, पिता जी की जगह उस राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टी के वरिष्ठ, भाई बहनों की जगह जनमानस और अपने उस टेलीविज़न की जगह ब्रेकिंग न्यूज़ के निशाने पर चल रही एक लोकतांत्रिक व्यवस्था से चुनी गयी सरकार को पाकर मै चाय के प्यालों के साथ मन ही मन मुस्कुराता रहा कि किस प्रकार अपने मिथ्याभिमान में मेरे पिता जी ने भी मुझे अकुशल और अनुभविहीन न मानकर कभी अपने जीवन की गाढ़ी कमाई से खरीदे उस विख्यात कम्पनी के दुरुस्त टेलीविज़न को मुझसे ठीक कराने का दुस्साहस किया था, आज उसी तरह लोगों की कड़ी मेहनत और अनुभव से वर्षों पूर्व खड़ी की गई एक राजनैतिक पार्टी का आस्तित्व भी हाशिये पर है ।
.......अब लेखनी बंद कर मै पूर्ण राष्ट्रीय भावना एवं तमाम अंतर्द्वंदों को समेटे परिवार के साथ शहर में चल रहे पुस्तक मेले की ओर निकल रहा
हूँ ।                                                            इति


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